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उत्तर प्रदेशः साथ की ताकत

by vdarpan
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उत्तर प्रदेशः / संयुक्त मोर्चा टीम

सपा और बसपा ने अपने मतभेद भुलाकर कायम किया गठबंधन जिसे हराना भाजपा के लिए बहुत मुश्किल: वहीं कांग्रेस अपने अगले कदम का तानाबाना बुनने के लिए अकेली पड़ी.

लखनऊ का हर चौराहा 12 जनवरी को अखिलेश यादव और मायावती की तस्वीरों वाले होर्डिंगों से पटा था. इस दिन समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने लोकसभा चुनावों से पहले एक साथ आने का ऐलान किया. प्रेस वार्ता में मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी ने ”राष्ट्रीय हित में सपा के साथ हाथ मिलाने का फैसला लिया है.” दोनों दलों ने राज्य में लोकसभा की 38-38 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का फैसला लिया, जबकि दो सीटें कांग्रेस के लिए और दो दूसरे सहयोगी दलों के लिए छोड़ दीं.

सपा-बसपा इससे पहले 1993 में साथ आई थीं, पर वह गठबंधन दो साल में बसपा के समर्थन वापस लेते ही टूट गया था. उस वक्त कड़वाहट इतनी बढ़ गई थी कि सपा कार्यकर्ताओं ने 1995 में लखनऊ के वीआइपी गेस्ट हाउस में ठहरी मायावती पर हमला बोल दिया था. इस घटना ने दोनों दलों को एक दूसरे का कट्टर दुश्मन बना दिया था. 12 जनवरी की प्रेस वार्ता में मायावती ने ‘गेस्ट हाउस की घटना’ का दो बार जिक्र करते हुए कहा कि यह गठबंधन राष्ट्र के हित में है.

बसपा के एक नेता ने खुलासा किया कि 4 जनवरी को अखिलेश और मायावती की बैठक में सीटों के बंटवारे को आखिरी शक्ल दी गई और दोनों ने तय किया कि वे ‘बराबरी की पार्टियों’ के नाते बराबर सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगी. बसपा नेता ने कहा, ”उन्हें लगा कि अगर किसी एक दल को ज्यादा सीटें मिलती हैं तो इससे दूसरे दल के वोटरों के मनोबल पर असर पड़ेगा.”

इस गठबंधन की बुनियाद मार्च 2018 में रखी गई थी, जब गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनाव में सपा के उम्मीदवारों को समर्थन देने के लिए मायावती राजी हो गईं. भाजपा के कब्जे वाली इन दोनों सीटों के उपचुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया कि सपा-बसपा मिलकर भाजपा को धराशायी कर सकती हैं.

एक साथ आकर इन दोनों दलों को राज्य के 22 फीसदी दलित, 45 फीसदी अन्य पिछड़े वर्ग और 19 फीसदी मुसलमान वोटरों का समर्थन पाने की उम्मीद है. 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को 22.35 फीसदी वोट मिले और उसने सिर्फ पांच सीटें जीती थीं, जबकि 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी. वहीं बसपा 19.77 फीसदी वोट पाने के बावजूद एक भी सीट नहीं जीत सकी थी और 35 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर थी. अगर सपा-बसपा को मिला दें, तो उन्हें 42.12 फीसदी वोट मिले थे और 41 सीटों पर उन्हें मिले सम्मिलित वोट भाजपा के वोटों से ज्यादा थे.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अजित कुमार कहते हैं, ”इस गठबंधन की कामयाबी दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के तालमेल पर निर्भर है.” 2007 से 2012 के दौरान बसपा के शासन के दौरान मायावती ने सपा के यादव वोट बैंक पर निशाना साधा था.

राज्य अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष बृजलाल बताते हैं, ”बसपा शासन के दौरान यादवों को एससी/एसटी कानून के दुरुपयोग से बहुत सहना पड़ा था. ऐसे कई मामले अब भी अदालत में हैं.” 2012 में जब सपा ने सरकार बनाई तो उसने 10,000 से ज्यादा दलित अफसरों के प्रोमोशन रद्द कर दिए थे. इस तरह सपा-बसपा के बुनियादी वोट बैंक एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं और दलित तथा यादव वोट बैंक में तालमेल के लिए दोनों दलों को कड़ी मशक्कत करनी होगी.

लखनऊ विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर मनीष हिंदवी कहते हैं, ”2014 के लोकसभा चुनाव के बाद दोनों दलों ने अपनी ताकत गंवाई है. बागी नेता शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी सपा के वोट बैंक में, खासकर यादवों के प्रभाव वाली सीटों में सेंध लगा रही है. उधर स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बृजेश पाठक जैसे नेता पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा में थे, जो पार्टी छोड़ चुके हैं. सो, पिछले चुनाव का गणित आने वाले संसदीय चुनावों में काम नहीं आएगा.” पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सपा, बसपा, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) को कुल मिलाकर 50.51 फीसदी वोट मिले और 58 सीटों पर उनके सम्मिलित वोट भाजपा के वोट से ज्यादा थे.कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर सपा और बसपा का तजुर्बा बुरा रहा है. 1996 के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ अपने गठबंधन को याद करते हुए मायावती ने कहा, ”कांग्रेस अपने वोट गठबंधन की भागीदार पार्टी को नहीं दिलवा पाती, जबकि सहयोगी पार्टी के वोटों के ट्रांसफर होने का फायदा उठाती है. नतीजतन, गठबंधन की भागीदार पार्टी का वोट प्रतिशत कम हो जाता है.” वहीं 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा  चुनाव में सपा-कांग्रेस का नाकाम गठबंधन करने वाले अखिलेश ने कहा, ”कांग्रेस का भी वही वोट बैंक है जो भाजपा का है. अगर कांग्रेस अकेले लड़ती है तो वह भाजपा के वोट बैंक को ही नुक्सान पहुंचाएगी.”

चुनाव बाद गठबंधन की संभावना को देखते हुए कांग्रेस ज्यादा सतर्क है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 12 जनवरी को सपा-बसपा के गठबंधन को सियासी फैसला करार दिया और यह भी कहा कि वे मायावती और अखिलेश का सक्वमान करते हैं. कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने दावा किया, ”कांग्रेस उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी और भाजपा को मात देगी.”

कांग्रेस खासकर उन 23 लोकसभा सीटों पर ध्यान देने का मंसूबा बना रही है, जहां वह 2009 में जीती थी. राज्य कांग्रेस के एक सचिव ने कहा कि पार्टी छोटे दलों से गठबंधन करेगी. अकेले चुनाव लडऩे का कांग्रेस का फैसला भाजपा के लिए मददगार हो सकता है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर मोहन सिंह कहते हैं, ”इससे मुसलमान पसोपेश में रहेंगे और भाजपा-विरोधी वोट बंटेगा.” भाजपा के राज्य संगठन सचिव सुनील बंसल मानते हैं कि आम तौर पर अपनी लड़ी जाने वाली सीटों के मुकाबले आधी सीटों पर उतरने से सपा-बसपा को कार्यकर्ताओं के आक्रोश का सामना करना पड़ेगा. सपा-बसपा गठबंधन का मुकाबला करने के लिए भाजपा ”मेरा परिवार, भाजपा परिवार’ अभियान शुरू करेगी. इसके तहत प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के लिए समर्थन जुटाने के लिए पार्टी के नेता और कार्यकर्ता घर-घर जाएंगे.

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